01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जथा मत्त गज जूथ महुँ पञ्चानन चलि जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥19॥
मूल
जथा मत्त गज जूथ महुँ पञ्चानन चलि जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥19॥
भावार्थ
जैसे मतवाले हाथियों के झुण्ड में सिंह (निःशङ्क होकर) चला जाता है, वैसे ही श्री रामजी के प्रताप का हृदय में स्मरण करके वे (निर्भय) सभा में सिर नवाकर बैठ गए॥19॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कह दसकण्ठ कवन तैं बन्दर। मैं रघुबीर दूत दसकन्धर॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥1॥
मूल
कह दसकण्ठ कवन तैं बन्दर। मैं रघुबीर दूत दसकन्धर॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥1॥
भावार्थ
रावण ने कहा- अरे बन्दर! तू कौन है? (अङ्गद ने कहा-) हे दशग्रीव! मैं श्री रघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी, इसलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥2॥
मूल
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥2॥
भावार्थ
तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। शिवजी की और ब्रह्माजी की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है। उनसे वर पाए हैं और सब काम सिद्ध किए हैं। लोकपालों और सब राजाओं को तुमने जीत लिया है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृप अभिमान मोह बस किम्बा। हरि आनिहु सीता जगदम्बा॥
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥3॥
मूल
नृप अभिमान मोह बस किम्बा। हरि आनिहु सीता जगदम्बा॥
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥3॥
भावार्थ
राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजी को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हितभरी सलाह) सुनो! (उसके अनुसार चलने से) प्रभु श्री रामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देङ्गे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दसन गहहु तृन कण्ठ कुठारी। परिजन सहित सङ्ग निज नारी॥
सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥4॥
मूल
दसन गहहु तृन कण्ठ कुठारी। परिजन सहित सङ्ग निज नारी॥
सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥4॥
भावार्थ
दाँतों में तिनका दबाओ, गले में कुल्हाडी डालो और कुटुम्बियों सहित अपनी स्त्रियों को साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकीजी को आगे करके, इस प्रकार सब भय छोडकर चलो-॥4॥