017

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु अग्या धरि सीस चरन बन्दि अङ्गद उठेउ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा कर करहु॥1॥

मूल

प्रभु अग्या धरि सीस चरन बन्दि अङ्गद उठेउ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा कर करहु॥1॥

भावार्थ

प्रभु की आज्ञा सिर चढकर और उनके चरणों की वन्दना करके अङ्गदजी उठे (और बोले-) हे भगवान्‌ श्री रामजी! आप जिस पर कृपा करें, वही गुणों का समुद्र हो जाता है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥2॥

मूल

स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥2॥

भावार्थ

स्वामी सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं, यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है (जो मुझे अपने कार्य पर भेज रहे हैं)। ऐसा विचार कर युवराज अङ्गद का हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दि चरन उर धरि प्रभुताई। अङ्गद चलेउ सबहि सिरु नाई॥
प्रभु प्रताप उर सहज असङ्का। रन बाँकुरा बालिसुत बङ्का॥1॥

मूल

बन्दि चरन उर धरि प्रभुताई। अङ्गद चलेउ सबहि सिरु नाई॥
प्रभु प्रताप उर सहज असङ्का। रन बाँकुरा बालिसुत बङ्का॥1॥

भावार्थ

चरणों की वन्दना करके और भगवान्‌ की प्रभुता हृदय में धरकर अङ्गद सबको सिर नवाकर चले। प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण किए हुए रणबाँकुरे वीर बालिपुत्र स्वाभाविक ही निर्भय हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेण्टा॥
बातहिं बात करष बढि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥2॥

मूल

पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेण्टा॥
बातहिं बात करष बढि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥2॥

भावार्थ

लङ्का में प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेण्ट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था। बातों ही बातों में दोनों में झगडा बढ गया (क्योङ्कि) दोनों ही अतुलनीय बलवान्‌ थे और फिर दोनों की युवावस्था थी॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहिं अङ्गद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥3॥

मूल

तेहिं अङ्गद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥3॥

भावार्थ

उसने अङ्गद पर लात उठाई। अङ्गद ने (वही) पैर पकडकर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार गिराया)। राक्षस के समूह भारी योद्धा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले, वे डर के मारे पुकार भी न मचा सके॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लङ्का जेहिं जारी॥4॥

मूल

एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लङ्का जेहिं जारी॥4॥

भावार्थ

एक-दूसरे को मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावण के पुत्र) का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं। (रावण पुत्र की मृत्यु जानकर और राक्षसों को भय के मारे भागते देखकर) नगरभर में कोलाहल मच गया कि जिसने लङ्का जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा॥
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥5॥

मूल

अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा॥
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥5॥

भावार्थ

सब अत्यन्त भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अङ्गद को (रावण के दरबार की) राह बता देते हैं। जिसे ही वे देखते हैं, वही डर के मारे सूख जाता है॥5॥