016

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकन्ध।
सहज असङ्क लङ्कपति सभाँ गयउ मद अन्ध॥1॥

मूल

ऐहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकन्ध।
सहज असङ्क लङ्कपति सभाँ गयउ मद अन्ध॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार (अज्ञानवश) बहुत से विनोद करते हुए रावण को सबेरा हो गया। तब स्वभाव से ही निडर और घमण्ड में अन्धा लङ्कापति सभा में गया॥1॥

02 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरञ्चि सम॥2॥

मूल

फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरञ्चि सम॥2॥

भावार्थ

यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता॥2॥

03 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवन्त कह पद सिरु नाई॥1॥

मूल

इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवन्त कह पद सिरु नाई॥1॥

भावार्थ

यहाँ (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होन्ने सब मन्त्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए? जाम्बवान्‌ ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाकर कहा-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मन्त्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥2॥

मूल

सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मन्त्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥2॥

भावार्थ

हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले (अन्तर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अङ्गद को दूत बनाकर भेजा जाए!॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीक मन्त्र सब के मन माना। अङ्गद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा। लङ्का जाहु तात मम कामा॥3॥

मूल

नीक मन्त्र सब के मन माना। अङ्गद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा। लङ्का जाहु तात मम कामा॥3॥

भावार्थ

यह अच्छी सलाह सबके मन में जँच गई। कृपा के निधान श्री रामजी ने अङ्गद से कहा- हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए लङ्का जाओ॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥
काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥4॥

मूल

बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥
काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥4॥

भावार्थ

तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो॥4॥