013

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्र मुकुट ताण्टक तब हते एकहीं बान।
सब कें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान॥1॥

मूल

छत्र मुकुट ताण्टक तब हते एकहीं बान।
सब कें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान॥1॥

भावार्थ

और एक ही बाण से (रावण के) छत्र-मुकुट और (मन्दोदरी के) कर्णफूल काट गिराए। सबके देखते-देखते वे जमीन पर आ पडे, पर इसका भेद (कारण) किसी ने नहीं जाना॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आई निषङ्ग।
रावन सभा ससङ्क सब देखि महा रसभङ्ग॥2॥

मूल

अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आई निषङ्ग।
रावन सभा ससङ्क सब देखि महा रसभङ्ग॥2॥

भावार्थ

ऐसा चमत्कार करके श्री रामजी का बाण (वापस) आकर (फिर) तरकस में जा घुसा। यह महान्‌ रस भङ्ग (रङ्ग में भङ्ग) देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गई॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कम्प न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयङ्कर भारी॥1॥

मूल

कम्प न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयङ्कर भारी॥1॥

भावार्थ

न भूकम्प हुआ, न बहुत जोर की हवा (आँधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। (फिर ये छत्र, मुकुट और कर्णफूल जैसे कटकर गिर पडे?) सभी अपने-अपने हृदय में सोच रहे हैं कि यह बडा भयङ्कर अपशकुन हुआ!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।
सिरउ गिरे सन्तत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही॥2॥

मूल

दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।
सिरउ गिरे सन्तत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही॥2॥

भावार्थ

सभा को भयतीत देखकर रावण ने हँसकर युक्ति रचकर ये वचन कहे- सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरन्तर शुभ होता रहा है, उसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सयन करहु निज निज गृह जाईं। गवने भवन सकल सिर नाई॥
मन्दोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ॥3॥

मूल

सयन करहु निज निज गृह जाईं। गवने भवन सकल सिर नाई॥
मन्दोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ॥3॥

भावार्थ

अपने-अपने घर जाकर सो रहो (डरने की कोई बात नहीं है) तब सब लोग सिर नवाकर घर गए। जब से कर्णफूल पृथ्वी पर गिरा, तब से मन्दोदरी के हृदय में सोच बस गया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥
कन्त राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ लग धरहू॥4॥

मूल

सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥
कन्त राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ लग धरहू॥4॥

भावार्थ

नेत्रों में जल भरकर, दोनों हाथ जोडकर वह (रावण से) कहने लगी- हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिए। हे प्रियतम! श्री राम से विरोध छोड दीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकडे रहिए॥4॥