012

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह हनुमन्त सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥1॥

मूल

कह हनुमन्त सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥1॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने कहा- हे प्रभो! सुनिए, चन्द्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुन्दर श्याम मूर्ति चन्द्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चन्द्रमा में है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवाह्नपारायण, सातवाँ विश्राम

पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान॥2॥

मूल

नवाह्नपारायण, सातवाँ विश्राम

पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान॥2॥

भावार्थ

पवनपुत्र हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सुजान श्री रामजी हँसे। फिर दक्षिण की ओर देखकर कृपानिधान प्रभु बोले-॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखु विभीषन दच्छिन आसा। घन घमण्ड दामिनी बिलासा॥
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा॥1॥

मूल

देखु विभीषन दच्छिन आसा। घन घमण्ड दामिनी बिलासा॥
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा॥1॥

भावार्थ

हे विभीषण! दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल कैसा घुमड रहा है और बिजली चमक रही है। भयानक बादल मीठे-मीठे (हल्के-हल्के) स्वर से गरज रहा है। कहीं कठोर ओलों की वर्षा न हो!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत विभीषन सुनहू कृपाला। होइ न तडित न बारिद माला॥
लङ्का सिखर उपर आगारा। तहँ दसकन्धर देख अखारा॥2॥

मूल

कहत विभीषन सुनहू कृपाला। होइ न तडित न बारिद माला॥
लङ्का सिखर उपर आगारा। तहँ दसकन्धर देख अखारा॥2॥

भावार्थ

विभीषण बोले- हे कृपालु! सुनिए, यह न तो बिजली है, न बादलों की घटा। लङ्का की चोटी पर एक महल है। दशग्रीव रावण वहाँ (नाच-गान का) अखाडा देख रहा है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्र मेघडम्बर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥
मन्दोदरी श्रवन ताटङ्का। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमङ्का॥3॥

मूल

छत्र मेघडम्बर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥
मन्दोदरी श्रवन ताटङ्का। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमङ्का॥3॥

भावार्थ

रावण ने सिर पर मेघडम्बर (बादलों के डम्बर जैसा विशाल और काला) छत्र धारण कर रखा है। वही मानो बादलों की काली घटा है। मन्दोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं, हे प्रभो! वही मानो बिजली चमक रही है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाजहिं ताल मृदङ्ग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहू सुरभूपा।
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढाव बान सन्धाना॥4॥

मूल

बाजहिं ताल मृदङ्ग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहू सुरभूपा।
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढाव बान सन्धाना॥4॥

भावार्थ

हे देवताओं के सम्राट! सुनिए, अनुपम ताल मृदङ्ग बज रहे हैं। वही मधुर (गर्जन) ध्वनि है। रावण का अभिमान समझकर प्रभु मुस्कुराए। उन्होन्ने धनुष चढाकर उस पर बाण का सन्धान किया॥4॥