01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥1॥
मूल
ऐहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥1॥
भावार्थ
इस प्रकार कृपा, रूप (सौन्दर्य) और गुणों के धाम श्री रामजी विराजमान हैं। वे मनुष्य धन्य हैं, जो सदा इस ध्यान में लौ लगाए रहते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयङ्क।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असङ्क॥2॥
मूल
पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयङ्क।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असङ्क॥2॥
भावार्थ
पूर्व दिशा की ओर देखकर प्रभु श्री रामजी ने चन्द्रमा को उदय हुआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे- चन्द्रमा को तो देखो। कैसा सिंह के समान निडर है!॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥
मत्त नाग तम कुम्भ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी॥1॥
मूल
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥
मत्त नाग तम कुम्भ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी॥1॥
भावार्थ
पूर्व दिशा रूपी पर्वत की गुफा में रहने वाला, अत्यन्त प्रताप, तेज और बल की राशि यह चन्द्रमा रूपी सिंह अन्धकार रूपी मतवाले हाथी के मस्तक को विदीर्ण करके आकाश रूपी वन में निर्भय विचर रहा है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुन्दरी केर सिङ्गारा॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई॥2॥
मूल
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुन्दरी केर सिङ्गारा॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई॥2॥
भावार्थ
आकाश में बिखरे हुए तारे मोतियों के समान हैं, जो रात्रि रूपी सुन्दर स्त्री के श्रृङ्गार हैं। प्रभु ने कहा- भाइयो! चन्द्रमा में जो कालापन है, वह क्या है? अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कहो॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई॥3॥
मूल
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई॥3॥
भावार्थ
सुग्रीव ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए! चन्द्रमा में पृथ्वी की छाया दिखाई दे रही है। किसी ने कहा- चन्द्रमा को राहु ने मारा था। वही (चोट का) काला दाग हृदय पर पडा हुआ है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
छिद्र सो प्रगट इन्दु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥4॥
मूल
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
छिद्र सो प्रगट इन्दु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥4॥
भावार्थ
कोई कहता है- जब ब्रह्मा ने (कामदेव की स्त्री) रति का मुख बनाया, तब उसने चन्द्रमा का सार भाग निकाल लिया (जिससे रति का मुख तो परम सुन्दर बन गया, परन्तु चन्द्रमा के हृदय में छेद हो गया)। वही छेद चन्द्रमा के हृदय में वर्तमान है, जिसकी राह से आकाश की काली छाया उसमें दिखाई पडती है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु कह गरल बन्धु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥
बिष सञ्जुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवन्त नर नारी॥5॥
मूल
प्रभु कह गरल बन्धु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥
बिष सञ्जुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवन्त नर नारी॥5॥
भावार्थ
प्रभु श्री रामजी ने कहा- विष चन्द्रमा का बहुत प्यारा भाई है, इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है। विषयुक्त अपने किरण समूह को फैलाकर वह वियोगी नर-नारियों को जलाता रहता है॥5॥