01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनासीर सत सरिस सो सन्तत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास॥10॥
मूल
सुनासीर सत सरिस सो सन्तत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास॥10॥
भावार्थ
वह निरन्तर सैकडों इन्द्रों के समान भोग-विलास करता रहता है। यद्यपि (श्रीरामजी-सरीखा) अत्यन्त प्रबल शत्रु सिर पर है, फिर भी उसको न तो चिन्ता है और न डर ही है॥10॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥
सिखर एक उतङ्ग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥1॥
मूल
इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥
सिखर एक उतङ्ग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥1॥
भावार्थ
यहाँ श्री रघुवीर सुबेल पर्वत पर सेना की बडी भीड (बडे समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल और विशेष रूप से उज्ज्वल शिखर देखकर-॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥
ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला॥2॥
मूल
तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥
ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला॥2॥
भावार्थ
वहाँ लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुन्दर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिए। उस पर सुन्दर और कोमल मृग छाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु श्री रामजी विराजमान थे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु कृत सीस कपीस उछङ्गा। बाम दहिन दिसि चाप निषङ्गा
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लङ्केस मन्त्र लगि काना॥3॥
मूल
प्रभु कृत सीस कपीस उछङ्गा। बाम दहिन दिसि चाप निषङ्गा
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लङ्केस मन्त्र लगि काना॥3॥
भावार्थ
प्रभु श्री रामजी वानरराज सुग्रीव की गोद में अपना सिर रखे हैं। उनकी बायीं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर तरकस (रखा) है। वे अपने दोनों करकमलों से बाण सुधार रहे हैं। विभीषणजी कानों से लगकर सलाह कर रहे हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बडभागी अङ्गद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषङ्ग कर बान सरासन॥4॥
मूल
बडभागी अङ्गद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषङ्ग कर बान सरासन॥4॥
भावार्थ
परम भाग्यशाली अङ्गद और हनुमान अनेकों प्रकार से प्रभु के चरण कमलों को दबा रहे हैं। लक्ष्मणजी कमर में तरकस कसे और हाथों में धनुष-बाण लिए वीरासन से प्रभु के पीछे सुशोभित हैं॥4॥