01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कम्पित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात॥7॥
मूल
अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कम्पित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात॥7॥
भावार्थ
ऐसा कहकर, नेत्रों में (करुणा का) जल भरकर और पति के चरण पकडकर, काँपते हुए शरीर से मन्दोदरी ने कहा- हे नाथ! श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए, जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाए॥7॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥
सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥1॥
मूल
तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥
सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥1॥
भावार्थ
तब रावण ने मन्दोदरी को उठाया और वह दुष्ट उससे अपनी प्रभुता कहने लगा- हे प्रिये! सुन, तूने व्यर्थ ही भय मान रखा है। बता तो जगत् में मेरे समान योद्धा है कौन?॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥
देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें॥2॥
मूल
बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥
देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें॥2॥
भावार्थ
वरुण, कुबेर, पवन, यमराज आदि सभी दिक्पालों को तथा काल को भी मैन्ने अपनी भुजाओं के बल से जीत रखा है। देवता, दानव और मनुष्य सभी मेरे वश में हैं। फिर तुझको यह भय किस कारण उत्पन्न हो गया?॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई॥
मन्दोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना॥3॥
मूल
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई॥
मन्दोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना॥3॥
भावार्थ
मन्दोदरी ने उसे बहुत तरह से समझाकर कहा (किन्तु रावण ने उसकी एक भी बात न सुनी) और वह फिर सभा में जाकर बैठ गया। मन्दोदरी ने हृदय में ऐसा जान लिया कि काल के वश होने से पति को अभिमान हो गया है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभाँ आइ मन्त्रिन्ह तेहिं बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा॥
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा॥4॥
मूल
सभाँ आइ मन्त्रिन्ह तेहिं बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा॥
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा॥4॥
भावार्थ
सभा में आकर उसने मन्त्रियों से पूछा कि शत्रु के साथ किस प्रकार से युद्ध करना होगा? मन्त्री कहने लगे- हे राक्षसों के नाथ! हे प्रभु! सुनिए, आप बार-बार क्या पूछते हैं?॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥5॥
मूल
कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥5॥
भावार्थ
कहिए तो (ऐसा) कौन-सा बडा भय है, जिसका विचार किया जाए? (भय की बात ही क्या है?) मनुष्य और वानर-भालू तो हमारे भोजन (की सामग्री) हैं॥