005

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिन्धु बारीस।
सत्य तोयनिधि कम्पति उदधि पयोधि नदीस॥5॥

मूल

बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिन्धु बारीस।
सत्य तोयनिधि कम्पति उदधि पयोधि नदीस॥5॥

भावार्थ

वननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिन्धु, वारीश, तोयनिधि, कम्पति, उदधि, पयोधि, नदीश को क्या सचमुच ही बाँध लिया?॥5॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज बिकलता बिचारि बहोरी॥ बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥
मन्दोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥1॥

मूल

निज बिकलता बिचारि बहोरी॥ बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥
मन्दोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥1॥

भावार्थ

फिर अपनी व्याकुलता को समझकर (ऊपर से) हँसता हुआ, भय को भुलाकर, रावण महल को गया। (जब) मन्दोदरी ने सुना कि प्रभु श्री रामजी आ गए हैं और उन्होन्ने खेल में ही समुद्र को बँधवा लिया है,॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी॥
चरन नाइ सिरु अञ्चलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा॥2॥

मूल

कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी॥
चरन नाइ सिरु अञ्चलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा॥2॥

भावार्थ

(तब) वह हाथ पकडकर, पति को अपने महल में लाकर परम मनोहर वाणी बोली। चरणों में सिर नवाकर उसने अपना आँचल पसारा और कहा- हे प्रियतम! क्रोध त्याग कर मेरा वचन सुनिए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥
तुम्हहि रघुपतिहि अन्तर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥3॥

मूल

नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥
तुम्हहि रघुपतिहि अन्तर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥3॥

भावार्थ

हे नाथ! वैर उसी के साथ करना चाहिए, जिससे बुद्धि और बल के द्वारा जीत सकें। आप में और श्री रघुनाथजी में निश्चय ही कैसा अन्तर है, जैसा जुगनू और सूर्य में!॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति बल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत सङ्घारे॥
जेहिं बलि बाँधि सहस भुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा॥4॥

मूल

अति बल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत सङ्घारे॥
जेहिं बलि बाँधि सहस भुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा॥4॥

भावार्थ

जिन्होन्ने (विष्णु रूप से) अत्यन्त बलवान्‌ मधु और कैटभ (दैत्य) मारे और (वराह और नृसिंह रूप से) महान्‌ शूरवीर दिति के पुत्रों (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) का संहार किया, जिन्होन्ने (वामन रूप से) बलि को बाँधा और (परशुराम रूप से) सहस्रबाहु को मारा, वे ही (भगवान्‌) पृथ्वी का भार हरण करने के लिए (रामरूप में) अवतीर्ण (प्रकट) हुए हैं!॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा॥5॥

मूल

तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा॥5॥

भावार्थ

हे नाथ! उनका विरोध न कीजिए, जिनके हाथ में काल, कर्म और जीव सभी हैं॥5॥