004

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेतुबन्ध भइ भीर अति कपि नभ पन्थ उडाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढि चढि पारहि जाहिं॥4॥

मूल

सेतुबन्ध भइ भीर अति कपि नभ पन्थ उडाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढि चढि पारहि जाहिं॥4॥

भावार्थ

सेतुबन्ध पर बडी भीड हो गई, इससे कुछ वानर आकाश मार्ग से उडने लगे और दूसरे (कितने ही) जलचर जीवों पर चढ-चढकर पार जा रहे हैं॥4॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥1॥

मूल

अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥1॥

भावार्थ

कृपालु रघुनाथजी (तथा लक्ष्मणजी) दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले। श्री रघुवीर सेना सहित समुद्र के पार हो गए। वानरों और उनके सेनापतियों की भीड कही नहीं जा सकती॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिन्धु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालू कपि जहँ तहँ धाए॥2॥

मूल

सिन्धु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालू कपि जहँ तहँ धाए॥2॥

भावार्थ

प्रभु ने समुद्र के पार डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी कि तुम जाकर सुन्दर फल-मूल खाओ। यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड पडे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥
खाहिं मधुर फल बिटप हलावहिं। लङ्का सन्मुख सिखर चलावहिं॥3॥

मूल

सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥
खाहिं मधुर फल बिटप हलावहिं। लङ्का सन्मुख सिखर चलावहिं॥3॥

भावार्थ

श्री रामजी के हित (सेवा) के लिए सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु- समय की गति को छोडकर फल उठे। वानर-भालू मीठे फल खा रहे हैं, वृक्षों को हिला रहे हैं और पर्वतों के शिखरों को लङ्का की ओर फेङ्क रहे हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥
दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना॥4॥

मूल

जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥
दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना॥4॥

भावार्थ

घूमते-घूमते जहाँ कहीं किसी राक्षस को पा जाते हैं तो सब उसे घेरकर खूब नाच नचाते हैं और दाँतों से उसके नाक-कान काटकर, प्रभु का सुयश कहकर (अथवा कहलाकर) तब उसे जाने देते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता॥
सुनत श्रवन बारिधि बन्धाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना॥5॥

मूल

जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता॥
सुनत श्रवन बारिधि बन्धाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना॥5॥

भावार्थ

जिन राक्षसों के नाक और कान काट डाले गए, उन्होन्ने रावण से सब समाचार कहा। समुद्र (पर सेतु) का बाँधा जाना कानों से सुनते ही रावण घबडाकर दसों मुखों से बोल उठा-॥5॥