003

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्री रघुबीर प्रताप ते सिन्धु तरे पाषान।
ते मतिमन्द जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥3॥

मूल

श्री रघुबीर प्रताप ते सिन्धु तरे पाषान।
ते मतिमन्द जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥3॥

भावार्थ

श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोडकर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मन्दबुद्धि हैं॥3॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाँधि सेतु अति सुदृढ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥
चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥1॥

मूल

बाँधि सेतु अति सुदृढ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥
चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥1॥

भावार्थ

नल-नील ने सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखने पर वह कृपानिधान श्री रामजी के मन को (बहुत ही) अच्छा लगा। सेना चली, जिसका कुछ वर्णन नहीं हो सकता। योद्धा वानरों के समुदाय गरज रहे हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेतुबन्ध ढिग चढि रघुराई। चितव कृपाल सिन्धु बहुताई॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कन्दा। प्रगट भए सब जलचर बृन्दा॥2॥

मूल

सेतुबन्ध ढिग चढि रघुराई। चितव कृपाल सिन्धु बहुताई॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कन्दा। प्रगट भए सब जलचर बृन्दा॥2॥

भावार्थ

कृपालु श्री रघुनाथजी सेतुबन्ध के तट पर चढकर समुद्र का विस्तार देखने लगे। करुणाकन्द (करुणा के मूल) प्रभु के दर्शन के लिए सब जलचरों के समूह प्रकट हो गए (जल के ऊपर निकल आए)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं॥3॥

मूल

मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं॥3॥

भावार्थ

बहुत तरह के मगर, नाक (घडियाल), मच्छ और सर्प थे, जिनके सौ-सौ योजन के बहुत बडे विशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जन्तु थे, जो उनको भी खा जाएँ। किसी-किसी के डर से तो वे भी डर रहे थे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे॥
तिन्ह कीं ओट न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी॥4॥

मूल

प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे॥
तिन्ह कीं ओट न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी॥4॥

भावार्थ

वे सब (वैर-विरोध भूलकर) प्रभु के दर्शन कर रहे हैं, हटाने से भी नहीं हटते। सबके मन हर्षित हैं, सब सुखी हो गए। उनकी आड के कारण जल नहीं दिखाई पडता। वे सब भगवान्‌ का रूप देखकर (आनन्द और प्रेम में) मग्न हो गए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥5॥

मूल

चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥5॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर सेना चली। वानर सेना की विपुलता (अत्यधिक सङ्ख्या) को कौन कह सकता है?॥5॥