01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्करप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥2॥
मूल
सङ्करप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥2॥
भावार्थ
जिनको शङ्करजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
जो गङ्गाजलु आनि चढाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥
मूल
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
जो गङ्गाजलु आनि चढाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥
भावार्थ
जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेङ्गे, वे शरीर छोडकर मेरे लोक को जाएँगे और जो गङ्गाजल लाकर इन पर चढावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा)॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि सङ्कर देइहि॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥2॥
मूल
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि सङ्कर देइहि॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥2॥
भावार्थ
जो छल छोडकर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेङ्गे, उन्हें शङ्करजी मेरी भक्ति देङ्गे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती। सन्तत करहिं प्रनत पर प्रीती॥3॥
मूल
राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती। सन्तत करहिं प्रनत पर प्रीती॥3॥
भावार्थ
श्री रामजी के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूडहिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥4॥
मूल
बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूडहिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥4॥
भावार्थ
चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। श्री रामजी की कृपा से उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान (स्वयं तैरने वाले और दूसरों को पार ले जाने वाले) हो गए॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥5॥
मूल
महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥5॥
भावार्थ
यह न तो समुद्र की महिमा वर्णन की गई है, न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है॥5॥