001

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति उतङ्ग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ॥1॥

मूल

अति उतङ्ग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ॥1॥

भावार्थ

बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह ही (उखाडकर) उठा लेते हैं और ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे अच्छी तरह गढकर (सुन्दर) सेतु बनाते हैं॥1॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कन्दुक इव नल नील ते लेहीं॥
देखि सेतु अति सुन्दर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥1॥

मूल

सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कन्दुक इव नल नील ते लेहीं॥
देखि सेतु अति सुन्दर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥1॥

भावार्थ

वानर बडे-बडे पहाड ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेन्द की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यन्त सुन्दर रचना देखकर कृपासिन्धु श्री रामजी हँसकर वचन बोले-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ सम्भु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना॥2॥

मूल

परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ सम्भु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना॥2॥

भावार्थ

यह (यहाँ की) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिवजी की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान्‌ सङ्कल्प है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए॥
लिङ्ग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥3॥

मूल

सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए॥
लिङ्ग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥3॥

भावार्थ

श्री रामजी के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिङ्ग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया (फिर भगवान बोले-) शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
सङ्कर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ मति थोरी॥4॥

मूल

सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
सङ्कर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ मति थोरी॥4॥

भावार्थ

जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शङ्करजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥4॥