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01 श्लोक

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥1॥

मूल

रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥1॥

भावार्थ

कामदेव के शत्रु शिवजी के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृन्द के एकमात्र देवता (रक्षक), जल वाले मेघ के समान सुन्दर श्याम, कमल के से नेत्र वाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव श्री रामजी की मैं वन्दना करता हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्खेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम्‌।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्‌॥2॥

मूल

शङ्खेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम्‌।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्‌॥2॥

भावार्थ

शङ्ख और चन्द्रमा की सी कान्ति के अत्यन्त सुन्दर शरीर वाले, व्याघ्रचर्म के वस्त्र वाले, काल के समान (अथवा काले रङ्ग के) भयानक सर्पों का भूषण धारण करने वाले, गङ्गा और चन्द्रमा के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप समूह का नाश करने वाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करने वाले, पार्वती पति वन्दनीय श्री शङ्करजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्‌।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे॥3॥

मूल

यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्‌।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे॥3॥

भावार्थ

जो सत्‌ पुरुषों को अत्यन्त दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों को दण्ड देने वाले हैं, वे कल्याणकारी श्री शम्भु मेरे कल्याण का विस्तार करें॥3॥

02 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चण्ड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदण्ड॥

मूल

लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चण्ड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदण्ड॥

भावार्थ

लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचण्ड बाण हैं और काल जिनका धनुष है, हे मन! तू उन श्री रामजी को क्यों नहीं भजता?

03 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिन्धु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलम्बु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु॥

मूल

सिन्धु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलम्बु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु॥

भावार्थ

समुद्र के वचन सुनकर प्रभु श्री रामजी ने मन्त्रियों को बुलाकर ऐसा कहा- अब विलम्ब किसलिए हो रहा है? सेतु (पुल) तैयार करो, जिसमें सेना उतरे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु भानुकुल केतु जामवन्त कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु नर चढि भव सागर तरहिं॥

मूल

सुनहु भानुकुल केतु जामवन्त कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु नर चढि भव सागर तरहिं॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ ने हाथ जोडकर कहा- हे सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढाने वाले) श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! (सबसे बडा) सेतु तो आपका नाम ही है, जिस पर चढकर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं।

04 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥
प्रभु प्रताप बडवानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥1॥

मूल

यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥
प्रभु प्रताप बडवानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥1॥

भावार्थ

फिर यह छोटा सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर फिर पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने कहा- प्रभु का प्रताप भारी बडवानल (समुद्र की आग) के समान है। इसने पहले समुद्र के जल को सोख लिया था,॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव रिपु नारि रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥2॥

मूल

तव रिपु नारि रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥2॥

भावार्थ

परन्तु आपके शत्रुओं की स्त्रियों के आँसुओं की धारा से यह फिर भर गया और उसी से खारा भी हो गया। हनुमान्‌जी की यह अत्युक्ति (अलङ्कारपूर्ण युक्ति) सुनकर वानर श्री रघुनाथजी की ओर देखकर हर्षित हो गए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामवन्त बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥3॥

मूल

जामवन्त बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥3॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई (और कहा-) मन में श्री रामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, (रामप्रताप से) कुछ भी परिश्रम नहीं होगा॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥
राम चरन पङ्कज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू॥4॥

मूल

बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥
राम चरन पङ्कज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू॥4॥

भावार्थ

फिर वानरों के समूह को बुला लिया (और कहा-) आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिए। अपने हृदय में श्री रामजी के चरण-कमलों को धारण कर लीजिए और सब भालू और वानर एक खेल कीजिए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा॥5॥

मूल

धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा॥5॥

भावार्थ

विकट वानरों के समूह (आप) दौड जाइए और वृक्षों तथा पर्वतों के समूहों को उखाड लाइए। यह सुनकर वानर और भालू हूह (हुँकार) करके और श्री रघुनाथजी के प्रताप समूह की (अथवा प्रताप के पुञ्ज श्री रामजी की) जय पुकारते हुए चले॥5॥