01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सीञ्च।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥
मूल
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सीञ्च।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥
भावार्थ
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुडजी! सुनिए, चाहे कोई करोडों उपाय करके सीञ्चे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभय सिन्धु गहि पद प्रभु केरे।
“छमहु+++(=क्षमस्व)+++ नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड-करनी”॥1॥
मूल
सभय सिन्धु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड करनी॥1॥
भावार्थ
समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकडकर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रन्थनि गाए॥
प्रभु-आयसु+++(=आज्ञा)+++ जेहि+++(=यस्मै)+++ कहँ जस अहई+++(=??)+++।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥
मूल
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रन्थनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥
भावार्थ
आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रन्थों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख+++(=शिक्षा)+++ दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल+++(वाद्य)+++ गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताडना के अधिकारी॥3॥
मूल
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताडना के अधिकारी॥3॥
भावार्थ
प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दण्ड) दी,
किन्तु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है।
ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बडाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥4॥
मूल
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बडाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥4॥
भावार्थ
प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बडाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)। तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है (अर्थात् आपकी आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरन्त वही करूँ॥4॥