57

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनय न मानत जलधि जड गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

मूल

बिनय न मानत जलधि जड गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

भावार्थ

इधर तीन दिन बीत गए, किन्तु जड समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुन्दर नीति॥1॥

मूल

लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुन्दर नीति॥1॥

भावार्थ

हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कञ्जूस से सुन्दर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

मूल

ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

भावार्थ

ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यन्त लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शान्ति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात्‌ ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि रघुपति चाप चढावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
सन्धानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अन्तर ज्वाला॥3॥

मूल

अस कहि रघुपति चाप चढावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
सन्धानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अन्तर ज्वाला॥3॥

भावार्थ

ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण सन्धान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अन्दर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जन्तु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥

मूल

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जन्तु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥

भावार्थ

मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोडकर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥