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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं सङ्ग्राम॥55॥

मूल

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं सङ्ग्राम॥55॥

भावार्थ

सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी हैं। हे रावण! वे सङ्ग्राम में करोडों कालों को जीत सकते हैं॥55॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

मूल

राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकडों समुद्रों को सोख सकते हैं, परन्तु नीति निपुण श्री रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पन्थ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

मूल

तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पन्थ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

भावार्थ

उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री रामजी) समुद्र से राह माँग रहे हैं, उनके मन में कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नहीं)। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा (और बोला-) जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है!॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज भीरु कर बचन दृढाई। सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ मृषा का करसि बडाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

मूल

सहज भीरु कर बचन दृढाई। सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ मृषा का करसि बडाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

भावार्थ

स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होन्ने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है। अरे मूर्ख! झूठी बडाई क्या करता है? बस, मैन्ने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढी। समय बिचारि पत्रिका काढी॥4॥

मूल

सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढी। समय बिचारि पत्रिका काढी॥4॥

भावार्थ

सुनि खल बचन दूत रिस बाढी। समय बिचारि पत्रिका काढी॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामानुज दीन्हीं यह पाती। नाथ बचाइ जुडावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

मूल

रामानुज दीन्हीं यह पाती। नाथ बचाइ जुडावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

भावार्थ

(और कहा-) श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठण्डी कीजिए। रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मन्त्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥5॥