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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विबिद मयन्द नील नल अङ्गद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवन्त बलरासि॥54॥

मूल

द्विबिद मयन्द नील नल अङ्गद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवन्त बलरासि॥54॥

भावार्थ

द्विविद, मयन्द, नील, नल, अङ्गद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान्‌ ये सभी बल की राशि हैं॥54॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥

मूल

ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥

भावार्थ

ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोडों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है। श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस मैं सुना श्रवन दसकन्धर। पदुम अठारह जूथप बन्दर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

मूल

अस मैं सुना श्रवन दसकन्धर। पदुम अठारह जूथप बन्दर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

भावार्थ

हे दशग्रीव! मैन्ने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं। हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिन्धु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

मूल

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिन्धु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

भावार्थ

सब के सब अत्यन्त क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते। हम मछलियों और साँपों सहित समुद्र को सोख लेङ्गे। नहीं तो बडे-बडे पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देङ्गे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असङ्का। मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लङ्का॥4॥

मूल

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असङ्का। मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लङ्का॥4॥

भावार्थ

और रावण को मसलकर धूल में मिला देङ्गे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं। सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लङ्का को निगल ही जाना चाहते हैं॥4॥