01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहेहु मुखागर मूढ सन मम सन्देसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥52॥
मूल
कहेहु मुखागर मूढ सन मम सन्देसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥52॥
भावार्थ
फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) सन्देश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो)॥52॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लङ्काँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥
मूल
तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लङ्काँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरन्त ही चल दिए। श्री रामजी का यश कहते हुए वे लङ्का में आए और उन्होन्ने रावण के चरणों में सिर नवाए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥
मूल
बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥
भावार्थ
दशमुख रावण ने हँसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? फिर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यन्त निकट आ गई है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करत राज लङ्का सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥
मूल
करत राज लङ्का सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥
भावार्थ
मूर्ख ने राज्य करते हुए लङ्का को त्याग दिया। अभागा अब जौ का कीडा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा), फिर भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिन्धु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥
मूल
जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिन्धु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥
भावार्थ
और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात्) उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते। फिर उन तपस्वियों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बडा डर है॥4॥