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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥50॥

मूल

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥50॥

भावार्थ

हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बडे (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देङ्गे। तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी॥50॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।
मन्त्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥

मूल

सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।
मन्त्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥

भावार्थ

(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होन्ने बहुत ही दुःख पाया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिन्धु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥2॥

मूल

नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिन्धु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥2॥

भावार्थ

(लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिन्धु समीप गए रघुराई॥3॥

मूल

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिन्धु समीप गए रघुराई॥3॥

भावार्थ

यह सुनकर श्री रघुवीर हँसकर बोले- ऐसे ही करेङ्गे, मन में धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए॥4॥

मूल

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥51॥