48

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥48॥

मूल

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥48॥

भावार्थ

जो सगुण (साकार) भगवान्‌ के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥48॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु लङ्केस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥

मूल

सुनु लङ्केस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥

भावार्थ

हे लङ्कापति! सुनो, तुम्हारे अन्दर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यन्त ही प्रिय हो। श्री रामजी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अम्बुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥

मूल

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अम्बुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥

भावार्थ

प्रभु की वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्री रामजी के चरण कमलों को पकडते हैं अपार प्रेम है, हृदय में समाता नहीं है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अन्तरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥

मूल

सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अन्तरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥

भावार्थ

(विभीषणजी ने कहा-) हे देव! हे चराचर जगत्‌ के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी। वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिन्धु कर नीरा॥4॥

मूल

अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिन्धु कर नीरा॥4॥

भावार्थ

अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरन्त ही समुद्र का जल माँगा॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जदपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥5॥

मूल

जदपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥5॥

भावार्थ

(और कहा-) हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत्‌ में मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता)। ऐसा कहकर श्री रामजी ने उनको राजतिलक कर दिया। आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई॥5॥