01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुञ्ज।
देखेउँ नयन बिरञ्चि सिव सेब्य जुगल पद कञ्ज॥47॥
मूल
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुञ्ज।
देखेउँ नयन बिरञ्चि सिव सेब्य जुगल पद कञ्ज॥47॥
भावार्थ
हे कृपा और सुख के पुञ्ज श्री रामजी! मेरा अत्यन्त असीम सौभाग्य है, जो मैन्ने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा॥47॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुण्डि सम्भु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥
मूल
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुण्डि सम्भु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥
भावार्थ
(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (सम्पूर्ण) जड-चेतन जगत् का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बन्धु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥
मूल
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बन्धु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥
भावार्थ
और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥
मूल
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥
भावार्थ
इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक सम्बन्धों का केन्द्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे सन्त प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥
मूल
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे सन्त प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥
भावार्थ
ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे सन्त ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥4॥