01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भञ्जन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥
मूल
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भञ्जन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥
भावार्थ
मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस कहि करत दण्डवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥
मूल
अस कहि करत दण्डवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥
भावार्थ
प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दण्डवत् करते देखा तो वे अत्यन्त हर्षित होकर तुरन्त उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होन्ने अपनी विशाल भुजाओं से पकडकर उनको हृदय से लगा लिया॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी॥
कहु लङ्केस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥
मूल
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी॥
कहु लङ्केस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥
भावार्थ
छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री रामजी भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले- हे लङ्केश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खल मण्डली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥3॥
मूल
खल मण्डली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥3॥
भावार्थ
दिन-रात दुष्टों की मण्डली में बसते हो। (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारी सब रीति (आचार-व्यवहार) जानता हूँ। तुम अत्यन्त नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट सङ्ग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥4॥
मूल
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट सङ्ग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥4॥
भावार्थ
हे तात! नरक में रहना वरन् अच्छा है, परन्तु विधाता दुष्ट का सङ्ग (कभी) न दे। (विभीषणजी ने कहा-) हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूँ, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है॥4॥