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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अङ्गद हनू समेत॥44॥

मूल

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अङ्गद हनू समेत॥44॥

भावार्थ

कृपा के धाम श्री रामजी ने हँसकर कहा- दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अङ्गद और हनुमान्‌ सहित सुग्रीवजी ‘कपालु श्री रामजी की जय हो’ कहते हुए चले॥4॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानन्द दान के दाता॥1॥

मूल

सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानन्द दान के दाता॥1॥

भावार्थ

विभीषणजी को आदर सहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनन्द का दान देने वाले (अत्यन्त सुखद) दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलम्ब कञ्जारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥2॥

मूल

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलम्ब कञ्जारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥2॥

भावार्थ

फिर शोभा के धाम श्री रामजी को देखकर वे पलक (मारना) रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गए। भगवान्‌ की विशाल भुजाएँ हैं लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने वाला साँवला शरीर है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सघ कन्ध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता॥3॥

मूल

सघ कन्ध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता॥3॥

भावार्थ

सिंह के से कन्धे हैं, विशाल वक्षःस्थल (चौडी छाती) अत्यन्त शोभा दे रहा है। असङ्ख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है। भगवान्‌ के स्वरूप को देखकर विभीषणजी के नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया। फिर मन में धीरज धरकर उन्होन्ने कोमल वचन कहे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥

मूल

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥

भावार्थ

हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अन्धकार पर सहज स्नेह होता है॥4॥