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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥40॥

मूल

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥40॥

भावार्थ

हे तात! मैं चरण पकडकर आपसे भीख माँगता हूँ (विनती करता हूँ)। कि आप मेरा दुलार रखिए (मुझ बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वक स्वीकार कीजिए) श्री रामजी को सीताजी दे दीजिए, जिसमें आपका अहित न हो॥40॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुध पुरान श्रुति सम्मत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥1॥

मूल

बुध पुरान श्रुति सम्मत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥1॥

भावार्थ

विभीषण ने पण्डितों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी से नीति बखानकर कही। पर उसे सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठा और बोला कि रे दुष्ट! अब मृत्यु तेरे निकट आ गई है!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥2॥

मूल

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥2॥

भावार्थ

अरे मूर्ख! तू जीता तो है सदा मेरा जिलाया हुआ (अर्थात्‌ मेरे ही अन्न से पल रहा है), पर हे मूढ! पक्ष तुझे शत्रु का ही अच्छा लगता है। अरे दुष्ट! बता न, जगत्‌ में ऐसा कौन है जिसे मैन्ने अपनी भुजाओं के बल से न जीता हो?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥3॥

मूल

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥3॥

भावार्थ

मेरे नगर में रहकर प्रेम करता है तपस्वियों पर। मूर्ख! उन्हीं से जा मिल और उन्हीं को नीति बता। ऐसा कहकर रावण ने उन्हें लात मारी, परन्तु छोटे भाई विभीषण ने (मारने पर भी) बार-बार उसके चरण ही पकडे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उमा सन्त कइ इहइ बडाई। मन्द करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥4॥

मूल

उमा सन्त कइ इहइ बडाई। मन्द करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥4॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! सन्त की यही बडाई (महिमा) है कि वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं। (विभीषणजी ने कहा-) आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परन्तु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचिव सङ्ग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥5॥

मूल

सचिव सङ्ग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥5॥

भावार्थ

(इतना कहकर) विभीषण अपने मन्त्रियों को साथ लेकर आकाश मार्ग में गए और सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे-॥5॥