01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि सन्त॥38॥
मूल
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि सन्त॥38॥
भावार्थ
हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोडकर श्री रामचन्द्रजी को भजिए, जिन्हें सन्त (सत्पुरुष) भजते हैं॥38॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवन्ता। ब्यापक अजित अनादि अनन्ता॥1॥
मूल
तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवन्ता। ब्यापक अजित अनादि अनन्ता॥1॥
भावार्थ
हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भण्डार) भगवान् हैं, वे निरामय (विकाररहित), अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनन्त ब्रह्म हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिन्धु मानुष तनुधारी॥
जन रञ्जन भञ्जन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥2॥
मूल
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिन्धु मानुष तनुधारी॥
जन रञ्जन भञ्जन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥2॥
भावार्थ
उन कृपा के समुद्र भगवान् ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनन्द देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भञ्जन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥
मूल
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भञ्जन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥
भावार्थ
वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए। वे श्री रघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर) को जानकीजी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए॥3॥
03 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥4॥
मूल
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥4॥
भावार्थ
जिसे सम्पूर्ण जगत् से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते। जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। हे रावण! हृदय में यह समझ लीजिए॥4॥