01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥35॥
मूल
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥35॥
भावार्थ
इस प्रकार कृपानिधान श्री रामजी समुद्र तट पर जा उतरे। अनेकों रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने लगे॥35॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
उहाँ निसाचर रहहिं ससङ्का। जब तें जारि गयउ कपि लङ्का॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥1॥
मूल
उहाँ निसाचर रहहिं ससङ्का। जब तें जारि गयउ कपि लङ्का॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥1॥
भावार्थ
वहाँ (लङ्का में) जब से हनुमान्जी लङ्का को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षस कुल की रक्षा (का कोई उपाय) नहीं है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मन्दोदरी अधिक अकुलानी॥2॥
मूल
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मन्दोदरी अधिक अकुलानी॥2॥
भावार्थ
जिसके दूत का बल वर्णन नहीं किया जा सकता, उसके स्वयं नगर में आने पर कौन भलाई है (हम लोगों की बडी बुरी दशा होगी)? दूतियों से नगरवासियों के वचन सुनकर मन्दोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कन्त करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥3॥
मूल
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कन्त करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥3॥
भावार्थ
वह एकान्त में हाथ जोडकर पति (रावण) के चरणों लगी और नीतिरस में पगी हुई वाणी बोली- हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड दीजिए। मेरे कहने को अत्यन्त ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुझत जासु दूत कइ करनी। स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कन्त जो चहहु भलाई॥4॥
मूल
समुझत जासु दूत कइ करनी। स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कन्त जो चहहु भलाई॥4॥
भावार्थ
जिनके दूत की करनी का विचार करते ही (स्मरण आते ही) राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, हे प्यारे स्वामी! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मन्त्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार सम्भु अज कीन्हें॥5॥
मूल
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार सम्भु अज कीन्हें॥5॥
भावार्थ
सीता आपके कुल रूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली जाडे की रात्रि के समान आई है। हे नाथ। सुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता॥5॥