34

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥34॥

मूल

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥34॥

भावार्थ

वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरों को बुलाया, सेनापतियों के समूह आ गए। वानर-भालुओं के झुण्ड अनेक रङ्गों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है॥34॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु पद पङ्कज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥

मूल

प्रभु पद पङ्कज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥

भावार्थ

वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं। महान्‌ बलवान्‌ रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्री रामजी ने वानरों की सारी सेना देखी। तब कमल नेत्रों से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कृपा बल पाइ कपिन्दा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिन्दा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुन्दर सुभ नाना॥2॥

मूल

राम कृपा बल पाइ कपिन्दा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिन्दा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुन्दर सुभ नाना॥2॥

भावार्थ

राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पङ्खवाले बडे पर्वत हो गए। तब श्री रामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान (कूच) किया। अनेक सुन्दर और शुभ शकुन हुए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जासु सकल मङ्गलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥3॥

मूल

जासु सकल मङ्गलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥3॥

भावार्थ

जिनकी कीर्ति सब मङ्गलों से पूर्ण है, उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है (लीला की मर्यादा है)। प्रभु का प्रस्थान जानकीजी ने भी जान लिया। उनके बाएँ अङ्ग फडक-फडककर मानो कहे देते थे (कि श्री रामजी आ रहे हैं)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा॥4॥

मूल

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा॥4॥

भावार्थ

जानकीजी को जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावण के लिए अपशकुन हुए। सेना चली, उसका वर्णन कौन कर सकता है? असङ्ख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥5॥

मूल

नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥5॥

भावार्थ

नख ही जिनके शस्त्र हैं, वे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलने वाले रीछ-वानर पर्वतों और वृक्षों को धारण किए कोई आकाश मार्ग से और कोई पृथ्वी पर चले जा रहे हैं। वे सिंह के समान गर्जना कर रहे हैं। (उनके चलने और गर्जने से) दिशाओं के हाथी विचलित होकर चिङ्ग्घाड रहे हैं॥5॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गन्धर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥1॥

मूल

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गन्धर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥1॥

भावार्थ

दिशाओं के हाथी चिङ्ग्घाडने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चञ्चल हो गए (काँपने लगे) और समुद्र खलबला उठे। गन्धर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब के सब मन में हर्षित हुए’ कि (अब) हमारे दुःख टल गए। अनेकों करोड भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं और करोडों ही दौड रहे हैं। ‘प्रबल प्रताप कोसलनाथ श्री रामचन्द्रजी की जय हो’ ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहों को गा रहे हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥2॥

मूल

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥2॥

भावार्थ

उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्‌) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नहीं सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते (घबडा जाते) हैं और पुनः-पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतों से पकडते हैं। ऐसा करते (अर्थात्‌ बार-बार दाँतों को गडाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खीञ्चते हुए) वे कैसे शोभा दे रहे हैं मानो श्री रामचन्द्रजी की सुन्दर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हों॥2॥