33

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥33॥

मूलम्

हे प्रभु! आप जिस पर प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी असाध्य (कठिन) नहीं है। आपके प्रतापसे निश्चय रूई बड़वानलको जला सकती है (असंभव भी संभव हो सकता है) ॥33॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥

मूल

नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥

भावार्थ

ः- रामचन्द्रजी के ये वचन सुनकर हनुमानजी ने कहा कि हे नाथ! मुझे तो कृपा करके आपकी अनपायिनी (जिसमें कभी विच्छेद नहीं पडे ऐसी, निश्चल) कल्याणकारी और सुखदायी भक्ति दो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महादेवजी ने कहा कि हे पार्वती! हनुमान की ऐसी परम सरल वाणी सुनकर प्रभु ने कहा कि हे हनुमान्! ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) अर्थात् तुमको हमारी भक्ति प्राप्त हो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥2॥

मूल

महादेवजी ने कहा कि हे पार्वती! हनुमान की ऐसी परम सरल वाणी सुनकर प्रभु ने कहा कि हे हनुमान्! ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) अर्थात् तुमको हमारी भक्ति प्राप्त हो॥1॥

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥2॥

भावार्थ

ः- हे पार्वती! जिन्होंने रामचन्द्रजीके परम दयालु स्वभावको जान लिया है, उनको रामचन्द्रजीकी भक्तिको छोंड़कर दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता। यह हनुमान् और रामचन्द्रजीका संवाद जिसके हृदयमें दृढ़ रीतिसे आ जाता है, वह श्री रामचन्द्रजीकी भक्तिको अवश्य पा लेता है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि प्रभु बचन कहहिँ कपिबृन्दा। जय जय जय कृपाल सुखकन्दा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा॥3॥

मूल

सुनि प्रभु बचन कहहिँ कपिबृन्दा। जय जय जय कृपाल सुखकन्दा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा॥3॥

भावार्थ

ः- प्रभुके ऐसे वचन सुनकर तमाम वानरवृन्द ने पुकार कर कहा कि हे दयालू! हे सुख के मूलकारण प्रभु! आपकी जय हो, जय हो, जय हो॥ उस समय प्रभुने सुग्रीव को बुलाकर कहा कि हे सुग्रीव! अब चलने की तैयारी करो॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब बिलम्बु केह कारन कीजे। तुरन्त कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥4॥

मूल

अब बिलम्बु केह कारन कीजे। तुरन्त कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥4॥

भावार्थ

ः- अब विलम्ब क्यों कर रहे हैं अब तुरन्त वानरोंको आज्ञा दीजिए। इस कौतुकको देखकर (भगवान की यह लीला) देवताओं ने आकाश से बहुतसे फूल बरसाये और फिर वे आनन्दित होकर अपने अपने लोक को चल दिये॥4॥