32

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमन्त। चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवन्त ॥32॥

मूल

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमन्त। चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवन्त ॥32॥

भावार्थ

ः- हनुमानजी प्रभुके वचन सुनकर और प्रभुके मुखकी ओर देखकर मनमें परम हर्षित हो गए, और बहुत व्याकुल होकर ‘हे भगवन्! रक्षा करो’ ऐसे कहते हुए चरणोंमे गिर पड़े ॥32॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पङ्कज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥

मूल

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पङ्कज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥

भावार्थ

ः-यद्यपि प्रभु उनको चरणों में से बार-बार उठाना चाहते हैं, परन्तु हनुमान् प्रेम में ऐसे मग्न हो गए थे कि वह उठना नहीं चाहते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवि कहते है कि रामचन्द्रजीके चरणकमलोंके बीच हनुमानजी सिर धरे है इस बातको स्मरण करके महादेवकी भी वही दशा होगयी और प्रेममें मग्न हो गये; क्योंकि हनुमान् रुद्रका अंशावतार है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥

मूल

कवि कहते है कि रामचन्द्रजीके चरणकमलोंके बीच हनुमानजी सिर धरे है इस बातको स्मरण करके महादेवकी भी वही दशा होगयी और प्रेममें मग्न हो गये; क्योंकि हनुमान् रुद्रका अंशावतार है॥1॥

सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥

भावार्थ

ः- फिर महादेव अपने मनको सावधान करके अति मनोहर कथा कहने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महादेवजी कहते है कि हे पार्वती! प्रभु ने हनमान् ‌को उठाकर छाती से लगाया और हाथ पकड कर अपने बहुत नजदीक बिठाया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कपि रावन पालित लङ्का। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बङ्का॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥3॥

मूल

महादेवजी कहते है कि हे पार्वती! प्रभु ने हनमान् ‌को उठाकर छाती से लगाया और हाथ पकड कर अपने बहुत नजदीक बिठाया॥2॥

कहु कपि रावन पालित लङ्का। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बङ्का॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥3॥

भावार्थ

ः- और हनुमानसे कहा कि हे हनुमान्! कहो, वह रावण की पाली हुई लंकापुरी, कि जो बड़ा बंका किला है, उसको तुमने कैसे जलाया? रामचन्द्रजी की यह बात सुन उनको प्रसन्न जानकर हनुमानजी ने अभिमानरहित होकर यह वचन कहे कि..॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥4॥

मूल

साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥4॥

भावार्थ

ः- वानर का तो अत्यन्त पराक्रम यही है कि वृक्ष की एक डालसे दूसरी डालपर कूद जाय। परन्तु जो मैं समुद्र को लांघकर लङ्का में चला गया और वहा जाकर मैंने लङ्का को जला दिया और बहुतसे राक्षसोंको मारकर अशोक वनको उजाड़ दिया॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥5॥

मूल

सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥5॥

भावार्थ

ः- हे प्रभु! यह सब आपका प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ नहीं है॥5॥