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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥

मूल

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥

भावार्थ

ः- हे करुणानिधान! सीताजीके एक एक क्षण, सौ सौ कल्प के समान व्यतीत होते हैं। इसलिए हे प्रभु! शीघ्र चलकर और अपने बाहुबल से दुष्टों के दल को जीतकर उनको शीघ्र ले आइए ॥31॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥

मूल

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥

भावार्थ

ः- सुख के धाम श्रीरामचन्द्रजी सीताजी के दुःख के समाचार सुन अति खिन्न हुए और उनके कमल जैसे दोनों नेत्रों में जल भर आया॥ रामचन्द्रजीने कहा कि जिसने मन, वचन व कर्मसे मेरी शरण ली है क्या स्वप्न में भी उसको विपत्ति होनी चाहिये? कदापि नहीं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥

मूल

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥

भावार्थ

ः- हनुमानजीने कहा कि हे प्रभु! मनुष्यकी यह विपत्ति तो वही (तभी) है जब यह मनुष्य आपका भजन स्मरण नहीं करता॥ हे प्रभु इस राक्षस की कितनी सी बात है, आप शत्रुको जीतकर सीताजी को ले आइये॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥3

मूल

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥3

भावार्थ

ः- (रामचन्द्रजीने कहा कि ) हे हनुमान! सुनो, तुम्हारे समान मेरा उपकार करनेवाला देवता, मनुष्य और मुनि कोइ भी देहधारी नहीं है॥ हे हनुमान! में तुम्हारा क्या प्रत्युपकार ( उपकार के बदले में उपकार) करूं; क्योंकि मेरा मन भी तुम्हारे सामने नहीं हो सकता (तुमसे लज्जित हो रहा है।)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥ पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥4॥

मूलम्

हे हनुमान! सुनो, मैंने अपने मन में विचार करके देख लिया है कि मैं तुमसे उऋण (ऋण मुक्त)नहीं हो सकता॥ रामचन्द्रजी ज्यों ज्यों बारम्बार हनुमानजी की ओर देखते है; त्यों त्यों उनके नेत्रों में जल भर आता है और शरीर पुलकित हो जाता है॥