30

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जन्त्रित जाहिँ प्रान केहि बाट ॥30॥

मूलम्

हनुमानजीने कहा कि हे नाथ ! यद्यपि सीताजीको कष्ट तो इतना है कि उनके प्राण एक क्षणभर न रहे। परन्तु सीताजी ने आपके दर्शन के लिए प्राणों का ऐसा बंदोबस्त करके रखा है कि रात दिन अखण्ड पहरा देने हेतु आपके नाम को सिपाही बना रखा है (आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है)। और आपके ध्यान को कपाट बनाया है (आपका ध्यान ही किवाड़ है)। और अपने नीचे किये हुए नेत्रों से जो अपने चरण की ओर निहारती है वह यन्त्रिका अर्थात् ताला है, अब प्राण किस रास्ते बाहर निकलें ॥30॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥

मूल

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥

भावार्थ

ः- चलते समय मुझे यह चूड़ामणि दी है, (ऐसे कह कर हनुमानजीने वह चूड़ामणि रामचन्द्रजीको दे दिया।) तब रामचन्द्रजी ने उस रत्न को लेकर अपनी छाती से लगाया॥

(तब हनुमानजीने कहा कि) हे नाथ! दोनो हाथ जोड़कर नेत्रों में जल लाकर सीताजी ने कुछ वचन भी कहे हैं सो सुनिये॥1॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बन्धु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥2॥

भावार्थ

ः- (सीताजीने कहा है कि) अनुज लक्ष्मणजी के साथ प्रभु के चरण पकडकर कहना कि हे दीनबन्धु! शरणागतोके सङ्कट को हरने वाले, नाथ! फिर मन, वचन और कर्मसे चरणोमें प्रीति रखने वाली मुझ को आपने किस अपराध से त्याग दिया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥

मूल

अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥

भावार्थ

ः- मेरा एक अपराध अवश्य है और वह मैंने जान भी लिया है कि आप से बिछडते ही (वियोग होते ही) मेरे प्राण नहीं निकल गये॥ परन्तु हे नाथ! वह अपराध मेरा नहीं है किन्तु नेत्रोका है; क्योंकि जिस समय प्राण निकलने लगते है उस समय ये नेत्र हठ कर उसमें बाधा कर देते हैं (अर्थात् केवल आपके दर्शन के लोभ से मेरे प्राण बने रहे हैं)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिँ सरीरा॥
नयन स्रवहिँ जलु निज हित लागी। जरैँ न पाव देह बिरहागी॥4॥

मूल

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिँ सरीरा॥
नयन स्रवहिँ जलु निज हित लागी। जरैँ न पाव देह बिरहागी॥4॥

भावार्थ

ः- हे प्रभु! आपका विरह तो अग्नि है, मेरा शरीर तूल (रुई) है। श्वास प्रबल वायु है। अब इस सामग्री के रहते शरीर क्षणभर में जल जाय इसमें कोई आश्चर्य नहीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परन्तु नेत्र अपने हित के लिए अर्थात् दर्शन हेतु जल बहा बहा कर उस विरह की आग को शान्त करते हैं, इससे विरह की आग भी मेरे शरीरको जला नहीं पाती॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिँ कहेँ भलि दीनदयाला॥5॥

मूल

परन्तु नेत्र अपने हित के लिए अर्थात् दर्शन हेतु जल बहा बहा कर उस विरह की आग को शान्त करते हैं, इससे विरह की आग भी मेरे शरीरको जला नहीं पाती॥

सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिँ कहेँ भलि दीनदयाला॥5॥

भावार्थ

ः- (हनुमानजी ने कहा कि) हे दीनदयाल! सीता की विपत्ति ऐसी भारी है कि उसको न कहना ही अच्छा है॥5॥