01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति सहित सब भेँटे रघुपति करुना पुञ्ज॥ पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कञ्ज ॥29॥
मूल
प्रीति सहित सब भेँटे रघुपति करुना पुञ्ज॥ पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कञ्ज ॥29॥
भावार्थ
ः- करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजी प्रीतिपूर्वक सब वानरोंसे मिले और उनसे कुशल पूछा, तब उन्होंने कहा कि हे नाथ! आपके चरणकमलों को कुशल देखकर (चरणकमलों के दर्शन पाने से) अब हम कुशल हैं ॥29॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जामवन्त कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरन्तर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥
मूल
जामवन्त कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरन्तर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥
भावार्थ
ः- उस समय जाम्बवान ने रामचन्द्रजीसे कहा कि हे नाथ! सुनिए, आप जिस पर दया करते हैं वे सर्वदा शुभ और निरन्तर कुशल रहते हैं। तथा देवता मनुष्य और मुनि सभी उस पर सदा प्रसन्न रहते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥2॥
मूल
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥2॥
भावार्थ
ः- वही विजयी (विजय करने वाला), विनयी (विनयवाला) और गुणोंका समुद्र होता है और उसकी सुख्याति तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध रहती है। यह सब काम प्रभु कृपा से सिद्ध हुआ है और हमारा जन्म भी आजही सफल हुआ है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवन्त रघुपतिहि सुनाए॥3॥
मूल
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवन्त रघुपतिहि सुनाए॥3॥
भावार्थ
ः- हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजी ने जो कार्य किया है उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता हनुमानजी की प्रशंसा के वचन और कार्य जाम्बवान ने रामचन्द्रजी को सुनाये॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4
मूल
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4
भावार्थ
ः- उन वचनोंको सुनकर दयालु श्रीरामचन्द्रजी ने उठकर हनुमानजी को अपनी छाती से लगाया, और श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणोंकी रक्षा वह किस तरह करती है?॥4॥