28

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥

मूल

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥

भावार्थ

ः- वहाँ से जो वानर भाग कर बचे थे उन सबोंने जाकर राजा सुग्रीवसे कहा कि हे राजन्! युवराज अङ्गदने वन का सत्यानाश कर दिया है। यह समाचार सुनकर सुग्रीवको बड़ा आनंद आया कि वे लोग प्रभुका काम करके आए हैं ॥28॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौँ न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिँ कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥

मूल

जौँ न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिँ कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥

भावार्थ

ः- सुग्रीवको आनंद क्यों हुआ? उसका कारण कहते हैं। सुग्रीव ने मन में विचार किया कि जो उनको सीताजी की खबर नहीं मिली होती तो वे लोग मधुवन के फल कदापि नहीं खाते॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे। इतने में समाज के साथ वे सभी वानर वहाँ चले आये॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइ सबहिँ नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपा भा काज बिसेखी॥2॥

मूल

राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे। इतने में समाज के साथ वे सभी वानर वहाँ चले आये॥1॥

आइ सबहिँ नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपा भा काज बिसेखी॥2॥

भावार्थ

ः- सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया और बड़े प्रेम के साथ सुग्रीव उन सबसे मिले। सुग्रीव ने सभी से कुशल पूछा तब उन्होंने कहा कि नाथ! आपके चरण कुशल देखकर हम कुशल हैं और जो यह काम बना है सो केवल रामचन्द्रजी की कृपासे बना है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिँ चलेऊ॥3॥

मूल

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिँ चलेऊ॥3॥

भावार्थ

ः- हे नाथ! यह काम हनुमानजीने किया हैै मानो सब वानरों के इसने प्राण बचा लिये हैं॥ यह बात सुनकर सुग्रीव उठकर फिर हनुमानजी से मिले और वानरों के साथ रामचन्द्रजी के पास आए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कपिन्ह जब आवत देखा। कियेँ काजु मन हरष बिसेखा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥4॥

मूल

राम कपिन्ह जब आवत देखा। कियेँ काजु मन हरष बिसेखा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥4॥

भावार्थ

ः- वानरोंको आते देखकर रामचन्द्रजीके मनमें बड़ा आनन्द हुआ कि ये लोग कार्य सिद्ध करके आ गये हैं॥ राम और लक्ष्मण ये दोनों भाई स्फटिकमणि की शिला पर बैठे हुए थे। वहाँ जाकर सब वानर दोनों भाइयों के चरणोंमें गिरे॥4॥