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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढि लाग अकास॥25॥

मूल

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढि लाग अकास॥25॥

भावार्थ

उस समय भगवान्‌ की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे। हनुमान्‌जी अट्टहास करके गर्जे और बढकर आकाश से जा लगे॥25॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देह बिसाल परम हरुआई। मन्दिर तें मन्दिर चढ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥

मूल

देह बिसाल परम हरुआई। मन्दिर तें मन्दिर चढ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥

भावार्थ

देह बडी विशाल, परन्तु बहुत ही हल्की (फुर्तीली) है। वे दौडकर एक महल से दूसरे महल पर चढ जाते हैं। नगर जल रहा है लोग बेहाल हो गए हैं। आग की करोडों भयङ्कर लपटें झपट रही हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥2॥

मूल

तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥2॥

भावार्थ

हाय बप्पा! हाय मैया! इस अवसर पर हमें कौन बचाएगा? (चारों ओर) यही पुकार सुनाई पड रही है। हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं है, वानर का रूप धरे कोई देवता है!॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥

मूल

साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥

भावार्थ

साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा है। हनुमान्‌जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं जलाया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लङ्का सब जारी। कूदि परा पुनि सिन्धु मझारी॥4॥

मूल

ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लङ्का सब जारी। कूदि परा पुनि सिन्धु मझारी॥4॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! जिन्होन्ने अग्नि को बनाया, हनुमान्‌जी उन्हीं के दूत हैं। इसी कारण वे अग्नि से नहीं जले। हनुमान्‌जी ने उलट-पलटकर (एक ओर से दूसरी ओर तक) सारी लङ्का जला दी। फिर वे समुद्र में कूद पडे॥