विश्वास-प्रस्तुतिः
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥24॥
मूल
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥24॥
भावार्थ
मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बन्दर की ममता पूँछ पर होती है। अतः तेल में कपडा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फिर आग लगा दो॥24॥
01 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बडाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥
मूल
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बडाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥
भावार्थ
जब बिना पूँछ का यह बन्दर वहाँ (अपने स्वामी के पास) जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा। जिनकी इसने बहुत बडाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूँ!॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ सोइ रचना॥2॥
मूल
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ सोइ रचना॥2॥
भावार्थ
यह वचन सुनते ही हनुमान्जी मन में मुस्कुराए (और मन ही मन बोले कि) मैं जान गया, सरस्वतीजी (इसे ऐसी बुद्धि देने में) सहायक हुई हैं। रावण के वचन सुनकर मूर्ख राक्षस वही (पूँछ में आग लगाने की) तैयारी करने लगे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥
मूल
रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥
भावार्थ
(पूँछ के लपेटने में इतना कपडा और घी-तेल लगा कि) नगर में कपडा, घी और तेल नहीं रह गया। हनुमान्जी ने ऐसा खेल किया कि पूँछ बढ गई (लम्बी हो गई)। नगरवासी लोग तमाशा देखने आए। वे हनुमान्जी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी हँसी करते हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमन्ता। भयउ परम लघुरूप तुरन्ता॥4॥
मूल
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमन्ता। भयउ परम लघुरूप तुरन्ता॥4॥
भावार्थ
ढोल बजते हैं, सब लोग तालियाँ पीटते हैं। हनुमान्जी को नगर में फिराकर, फिर पूँछ में आग लगा दी। अग्नि को जलते हुए देखकर हनुमान्जी तुरन्त ही बहुत छोटे रूप में हो गए॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निबुकि चढेउ कप कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं॥5॥
मूल
निबुकि चढेउ कप कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं॥5॥
भावार्थ
बन्धन से निकलकर वे सोने की अटारियों पर जा चढे। उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियाँ भयभीत हो गईं॥5॥