23

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिन्धु भगवान॥23॥

मूल

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिन्धु भगवान॥23॥

भावार्थ

मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीडा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान्‌ श्री रामचन्द्रजी का भजन करो॥23॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड ग्यानी॥1॥

मूल

जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड ग्यानी॥1॥

भावार्थ

यद्यपि हनुमान्‌जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान्‌ अभिमानी रावण बहुत हँसकर (व्यङ्ग्य से) बोला कि हमें यह बन्दर बडा ज्ञानी गुरु मिला!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥2॥

मूल

मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥2॥

भावार्थ

रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गई है। अधम! मुझे शिक्षा देने चला है। हनुमान्‌जी ने कहा- इससे उलटा ही होगा (अर्थात्‌ मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नहीं)। यह तेरा मतिभ्रम (बुद्धि का फेर) है, मैन्ने प्रत्यक्ष जान लिया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥3॥

मूल

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥3॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी के वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया। (और बोला-) अरे! इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौडे उसी समय मन्त्रियों के साथ विभीषणजी वहाँ आ पहुँचे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दण्ड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मन्त्र भल भाई॥4॥

मूल

नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दण्ड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मन्त्र भल भाई॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने सिर नवाकर और बहुत विनय करके रावण से कहा कि दूत को मारना नहीं चाहिए, यह नीति के विरुद्ध है। हे गोसाईं। कोई दूसरा दण्ड दिया जाए। सबने कहा- भाई! यह सलाह उत्तम है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बिहसि बोला दसकन्धर। अङ्ग भङ्ग करि पठइअ बन्दर॥5॥

मूल

सुनत बिहसि बोला दसकन्धर। अङ्ग भङ्ग करि पठइअ बन्दर॥5॥

भावार्थ

यह सुनते ही रावण हँसकर बोला- अच्छा तो, बन्दर को अङ्ग-भङ्ग करके भेज (लौटा) दिया जाए॥5॥कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।