01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥19॥
मूल
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥19॥
भावार्थ
अन्त में उसने ब्रह्मास्त्र का सन्धान (प्रयोग) किया, तब हनुमान्जी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी॥19॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु सङ्घारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥
मूल
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु सङ्घारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥
भावार्थ
उसने हनुमान्जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पडे), परन्तु गिरते समय भी उन्होन्ने बहुत सी सेना मार डाली। जब उसने देखा कि हनुमान्जी मूर्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बाँधकर ले गया॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बन्धन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बन्ध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥2॥
मूल
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बन्धन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बन्ध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥2॥
भावार्थ
(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बन्धन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बन्धन में आ सकता है? किन्तु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान्जी ने स्वयं अपने को बँधा लिया॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपि बन्धन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥3॥
मूल
कपि बन्धन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥3॥
भावार्थ
बन्दर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौडे और कौतुक के लिए (तमाशा देखने के लिए) सब सभा में आए। हनुमान्जी ने जाकर रावण की सभा देखी। उसकी अत्यन्त प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन सङ्का। जिमि अहिगन महुँ गरुड असङ्का॥4॥
मूल
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन सङ्का। जिमि अहिगन महुँ गरुड असङ्का॥4॥
भावार्थ
देवता और दिक्पाल हाथ जोडे बडी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं। (उसका रुख देख रहे हैं) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान्जी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ। वे ऐसे निःशङ्ख खडे रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड निःशङ्ख निर्भय) रहते हैं॥4॥