01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥18॥
मूल
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥18॥
भावार्थ
उन्होन्ने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड-पकडकर धूल में मिला दिया। कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बन्दर बहुत ही बलवान् है॥18॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि सुत बध लङ्केस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥
मूल
सुनि सुत बध लङ्केस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥
भावार्थ
पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान् मेघनाद को भेजा। (उससे कहा कि-) हे पुत्र! मारना नहीं उसे बाँध लाना। उस बन्दर को देखा जाए कि कहाँ का है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चला इन्द्रजित अतुलित जोधा। बन्धु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥2॥
मूल
चला इन्द्रजित अतुलित जोधा। बन्धु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥2॥
भावार्थ
इन्द्र को जीतने वाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला। भाई का मारा जाना सुन उसे क्रोध हो आया। हनुमान्जी ने देखा कि अबकी भयानक योद्धा आया है। तब वे कटकटाकर गर्जे और दौडे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लङ्केस कुमारा॥
रहे महाभट ताके सङ्गा। गहि गहि कपि मर्दई निज अङ्गा॥3॥
मूल
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लङ्केस कुमारा॥
रहे महाभट ताके सङ्गा। गहि गहि कपि मर्दई निज अङ्गा॥3॥
भावार्थ
उन्होन्ने एक बहुत बडा वृक्ष उखाड लिया और (उसके प्रहार से) लङ्केश्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया। (रथ को तोडकर उसे नीचे पटक दिया)। उसके साथ जो बडे-बडे योद्धा थे, उनको पकड-पकडकर हनुमान्जी अपने शरीर से मसलने लगे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥4॥
मूल
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥4॥
भावार्थ
उन सबको मारकर फिर मेघनाद से लडने लगे। (लडते हुए वे ऐसे मालूम होते थे) मानो दो गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड गए हों। हनुमान्जी उसे एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढे। उसको क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गई॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभञ्जन जाया॥5॥
मूल
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभञ्जन जाया॥5॥
भावार्थ
फिर उठकर उसने बहुत माया रची, परन्तु पवन के पुत्र उससे जीते नहीं जाते॥5॥