01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुडहि खाइ परम लघु ब्याल॥16॥
मूल
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुडहि खाइ परम लघु ब्याल॥16॥
भावार्थ
हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती, परन्तु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड को खा सकता है। (अत्यन्त निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है)॥16॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन सन्तोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥
मूल
मन सन्तोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥
भावार्थ
भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में सन्तोष हुआ। उन्होन्ने श्री रामजी के प्रिय जानकर हनुमान्जी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥
मूल
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥
भावार्थ
हे पुत्र! तुम अजर (बुढापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥
मूल
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥
भावार्थ
हनुमान्जी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोडकर कहा- हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुन्दर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥
मूल
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुन्दर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥
भावार्थ
हे माता! सुनो, सुन्दर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बडी ही भूख लग आई है। (सीताजी ने कहा-) हे बेटा! सुनो, बडे भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥
मूल
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥
भावार्थ
(हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! यदि आप मन में सुख मानें (प्रसन्न होकर) आज्ञा दें तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है॥5॥