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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसिचर निकर पतङ्ग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥15॥

मूल

निसिचर निकर पतङ्ग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥15॥

भावार्थ

राक्षसों के समूह पतङ्गों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं। हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो॥15॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलम्बु रघुराई॥
राम बान रबि उएँ जानकी। तम बरुथ कहँ जातुधान की॥1॥

मूल

जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलम्बु रघुराई॥
राम बान रबि उएँ जानकी। तम बरुथ कहँ जातुधान की॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलम्ब न करते। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अन्धकार कहाँ रह सकता है?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥2॥

मूल

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥2॥

भावार्थ

हे माता! मैं आपको अभी यहाँ से लिवा जाऊँ, पर श्री रामचन्द्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है। (अतः) हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्री रामचन्द्रजी वानरों सहित यहाँ आएँगे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना॥3॥

मूल

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना॥3॥

भावार्थ

और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएँगे। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गाएँगे। (सीताजी ने कहा-) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हें-नन्हें से) होङ्गे, राक्षस तो बडे बलवान, योद्धा हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोरें हृदय परम सन्देहा। सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयङ्कर अतिबल बीरा॥4॥

मूल

मोरें हृदय परम सन्देहा। सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयङ्कर अतिबल बीरा॥4॥

भावार्थ

अतः मेरे हृदय में बडा भारी सन्देह होता है (कि तुम जैसे बन्दर राक्षसों को कैसे जीतेङ्गे!)। यह सुनकर हनुमान्‌जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यन्त विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यन्त बलवान्‌ और वीर था॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥5॥

मूल

सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥5॥

भावार्थ

तब (उसे देखकर) सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमान्‌जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥