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01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अङ्गार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥12॥

मूल

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अङ्गार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥12॥

भावार्थ

तब हनुमान्‌जी ने हदय में विचार कर (सीताजी के सामने) अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अङ्गारा दे दिया। (यह समझकर) सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया॥12॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अङ्कित अति सुन्दर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥

मूल

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अङ्कित अति सुन्दर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥

भावार्थ

तब उन्होन्ने राम-नाम से अङ्कित अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥2॥

मूल

जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥2॥

भावार्थ

(वे सोचने लगीं-) श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बोले-॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामचन्द्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥

मूल

रामचन्द्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥

भावार्थ

वे श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान्‌जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमन्त निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥4॥

मूल

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमन्त निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥4॥

भावार्थ

(सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुन्दर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्‌जी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥5॥

मूल

राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥5॥

भावार्थ

(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ, हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ। श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नर बानरहि सङ्ग कहु कैसें। कही कथा भइ सङ्गति जैसें॥6॥

मूल

नर बानरहि सङ्ग कहु कैसें। कही कथा भइ सङ्गति जैसें॥6॥

भावार्थ

(सीताजी ने पूछा-) नर और वानर का सङ्ग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजी ने जैसे सङ्ग हुआ था, वह सब कथा कही॥6॥