01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन गयउ दसकन्धर इहाँ पिसाचिनि बृन्द।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मन्द॥10॥
मूल
भवन गयउ दसकन्धर इहाँ पिसाचिनि बृन्द।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मन्द॥10॥
भावार्थ
(यों कहकर) रावण घर चला गया। यहाँ राक्षसियों के समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे॥10॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥
मूल
त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥
भावार्थ
उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थी। उसने सबों को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा- सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सपनें बानर लङ्का जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ नगन दससीसा। मुण्डित सिर खण्डित भुज बीसा॥2॥
मूल
सपनें बानर लङ्का जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ नगन दससीसा। मुण्डित सिर खण्डित भुज बीसा॥2॥
भावार्थ
स्वप्न (मैन्ने देखा कि) एक बन्दर ने लङ्का जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई। रावण नङ्गा है और गदहे पर सवार है। उसके सिर मुँडे हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लङ्का मनहुँ बिभीषन पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥3॥
मूल
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लङ्का मनहुँ बिभीषन पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥3॥
भावार्थ
इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लङ्का विभीषण ने पाई है। नगर में श्री रामचन्द्रजी की दुहाई फिर गई। तब प्रभु ने सीताजी को बुला भेजा॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह सपना मैं कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥4॥
मूल
यह सपना मैं कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥4॥
भावार्थ
मैं पुकारकर (निश्चय के साथ) कहती हूँ कि यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा। उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गईं और जानकीजी के चरणों पर गिर पडीं॥4॥