01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामायुध अङ्कित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृन्द तहँ देखि हरष कपिराई॥5॥
मूल
रामायुध अङ्कित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृन्द तहँ देखि हरष कपिराई॥5॥
भावार्थ
वह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अङ्कित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमान्जी हर्षित हुए॥5॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
लङ्का निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥
मूल
लङ्का निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥
भावार्थ
लङ्का तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥
मूल
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥
भावार्थ
उन्होन्ने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनमान्जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान्जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योङ्कि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥
मूल
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥
भावार्थ
ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान्जी ने उन्हें वचन सुनाए (पुकारा)। सुनते ही विभीषणजी उठकर वहाँ आए। प्रणाम करके कुशल पूछी (और कहा कि) हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बडभागी॥4॥
मूल
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बडभागी॥4॥
भावार्थ
क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं? क्योङ्कि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यन्त प्रेम उमड रहा है। अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बडभागी बनाने (घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं?॥4॥