03

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥

मूल

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥

भावार्थ

नगर के बहुसङ्ख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्‌जी ने मन में विचार किया कि अत्यन्त छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मसक समान रूप कपि धरी। लङ्कहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लङ्किनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निन्दरी॥1॥

मूल

मसक समान रूप कपि धरी। लङ्कहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लङ्किनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निन्दरी॥1॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी मच्छड के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके लङ्का को चले (लङ्का के द्वार पर) लङ्किनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली- मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥

मूल

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥

भावार्थ

हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहाँ तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमान्‌जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर लुढक पडी॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि सम्भारि उठी सो लङ्का। जोरि पानि कर बिनय ससङ्का॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरञ्च कहा मोहि चीन्हा॥3॥

मूल

पुनि सम्भारि उठी सो लङ्का। जोरि पानि कर बिनय ससङ्का॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरञ्च कहा मोहि चीन्हा॥3॥

भावार्थ

वह लङ्किनी फिर अपने को सम्भालकर उठी और डर के मारे हाथ जोडकर विनती करने लगी। (वह बोली-) रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होन्ने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि-॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर सङ्घारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥

मूल

बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर सङ्घारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥

भावार्थ

जब तू बन्दर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बडे पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचन्द्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई॥4॥