01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2॥
मूल
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2॥
भावार्थ
तुम श्री रामचन्द्रजी का सब कार्य करोगे, क्योङ्कि तुम बल-बुद्धि के भण्डार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्जी हर्षित होकर चले॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसिचरि एक सिन्धु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जन्तु जे गगन उडाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥
मूल
निसिचरि एक सिन्धु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जन्तु जे गगन उडाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥
भावार्थ
समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उडते हुए पक्षियों को पकड लेती थी। आकाश में जो जीव-जन्तु उडा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गहइ छाहँ सक सो न उडाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान् कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥
मूल
गहइ छाहँ सक सो न उडाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान् कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥
भावार्थ
उस परछाईं को पकड लेती थी, जिससे वे उड नहीं सकते थे (और जल में गिर पडते थे) इस प्रकार वह सदा आकाश में उडने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान्जी से भी किया। हनुमान्जी ने तुरन्त ही उसका कपट पहचान लिया॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुञ्जत चञ्चरीक मधु लोभा॥3॥
मूल
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुञ्जत चञ्चरीक मधु लोभा॥3॥
भावार्थ
पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान्जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहाँ जाकर उन्होन्ने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गुञ्जार कर रहे थे॥3॥नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृन्द देखि मन भाए॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें॥4॥
मूल
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें॥4॥
भावार्थ
अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में (बहुत ही) प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान्जी भय त्यागकर उस पर दौडकर जा चढे॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढि लङ्का तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥
मूल
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढि लङ्का तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥
भावार्थ
(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! इसमें वानर हनुमान् की कुछ बडाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढकर उन्होन्ने लङ्का देखी। बहुत ही बडा किला है, कुछ कहा नहीं जाता॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति उतङ्ग जलनिधि चहुँ पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥
मूल
अति उतङ्ग जलनिधि चहुँ पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥
भावार्थ
वह अत्यन्त ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोटे (चहारदीवारी) का परम प्रकाश हो रहा है॥6॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुन्दरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥
मूल
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुन्दरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥
भावार्थ
विचित्र मणियों से जडा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अन्दर बहुत से सुन्दर-सुन्दर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियाँ हैं, सुन्दर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोडे, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यन्त बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गन्धर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥
मूल
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गन्धर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥
भावार्थ
वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाडी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गन्धर्वों की कन्याएँ अपने सौन्दर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बडे ही बलवान् मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाडों में बहुत प्रकार से भिडते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥3॥
मूल
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥3॥
भावार्थ
भयङ्कर शरीर वाले करोडों योद्धा यत्न करके (बडी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं में (सब ओर से) रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोडी सी कही है कि ये निश्चय ही श्री रामचन्द्रजी के बाण रूपी तीर्थ में शरीरों को त्यागकर परमगति पावेङ्गे॥3॥