29

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाइ।
उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥29॥

मूल

बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाइ।
उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥29॥

भावार्थ

बलि के बाँधते समय प्रभु इतने बढे कि उस शरीर का वर्णन नहीं हो सकता, किन्तु मैन्ने दो ही घडी में दौडकर (उस शरीर की) सात प्रदक्षिणाएँ कर लीं॥29॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवन्त कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सबही कर नायक॥1॥

मूल

अङ्गद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवन्त कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सबही कर नायक॥1॥

भावार्थ

अङ्गद ने कहा- मैं पार तो चला जाऊँगा, परन्तु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ सन्देह है। जाम्बवान्‌ ने कहा- तुम सब प्रकार से योग्य हो, परन्तु तुम सबके नेता हो, तुम्हे कैसे भेजा जाए?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥2॥

मूल

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥2॥

भावार्थ

ऋक्षराज जाम्बवान्‌ ने श्री हनुमानजी से कहा- हे हनुमान्‌! हे बलवान्‌! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥3॥

मूल

कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥3॥

भावार्थ

जगत्‌ में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। श्री रामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्‌जी पर्वत के आकार के (अत्यन्त विशालकाय) हो गए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥4॥

मूल

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥4॥

भावार्थ

उनका सोने का सा रङ्ग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। हनुमान्‌जी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥
जामवन्त मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥5॥

मूल

सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥
जामवन्त मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥5॥

भावार्थ

और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाडकर यहाँ ला सकता हूँ। हे जाम्बवान्‌! मैं तुमसे पूछता हूँ, तुम मुझे उचित सीख देना (कि मुझे क्या करना चाहिए)॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥
तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि सङ्ग कपि सेना॥6॥

मूल

एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥
तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि सङ्ग कपि सेना॥6॥

भावार्थ

(जाम्बवान्‌ ने कहा-) हे तात! तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन श्री रामजी अपने बाहुबल से (ही राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएँगे, केवल) खेल के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेङ्गे॥6॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

कपि सेन सङ्ग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनि हैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानि हैं॥
जो सुनत गावत कहत समुक्षत परमपद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥

मूल

कपि सेन सङ्ग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनि हैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानि हैं॥
जो सुनत गावत कहत समुक्षत परमपद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥

भावार्थ

वानरों की सेना साथ लेकर राक्षसों का संहार करके श्री रामजी सीताजी को ले आएँगे। तब देवता और नारदादि मुनि भगवान्‌ के तीनों लोकों को पवित्र करने वाले सुन्दर यश का बखान करेङ्गे, जिसे सुनने, गाने, कहने और समझने से मनुष्य परमपद पाते हैं और जिसे श्री रघुवीर के चरणकमल का मधुकर (भ्रमर) तुलसीदास गाता है।