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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं देखउँ तुम्ह नाहीं गीधहि दृष्टि अपार।
बूढ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार॥28॥

मूल

मैं देखउँ तुम्ह नाहीं गीधहि दृष्टि अपार।
बूढ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार॥28॥

भावार्थ

मैं उन्हें देख रहा हूँ, तुम नहीं देख सकते, क्योङ्कि गीध की दृष्टि अपार होती है (बहुत दूर तक जाती है)। क्या करूँ? मैं बूढा हो गया, नहीं तो तुम्हारी कुछ तो सहायता अवश्य करता॥28॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर॥
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥1॥

मूल

जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर॥
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥1॥

भावार्थ

जो सौ योजन (चार सौ कोस) समुद्र लाँघ सकेगा और बुद्धिनिधान होगा, वही श्री रामजी का कार्य कर सकेगा। (निराश होकर घबराओ मत) मुझे देखकर मन में धीरज धरो। देखो, श्री रामजी की कृपा से (देखते ही देखते) मेरा शरीर कैसा हो गया (बिना पाँख का बेहाल था, पाँख उगने से सुन्दर हो गया) !॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापिउ जाकर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं॥
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई राम हृदयँ धरि करहु उपाई॥2॥

मूल

पापिउ जाकर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं॥
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई राम हृदयँ धरि करहु उपाई॥2॥

भावार्थ

पापी भी जिनका नाम स्मरण करके अत्यन्त पार भवसागर से तर जाते हैं। तुम उनके दूत हो, अतः कायरता छोडकर श्री रामजी को हृदय में धारण करके उपाय करो॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि गरुड गीध जब गयऊ। तिन्ह के मन अति बिसमय भयऊ॥
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥3॥

मूल

अस कहि गरुड गीध जब गयऊ। तिन्ह के मन अति बिसमय भयऊ॥
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥3॥

भावार्थ

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुडजी! इस प्रकार कहकर जब गीध चला गया, तब उन (वानरों) के मन में अत्यन्त विस्मय हुआ। सब किसी ने अपना-अपना बल कहा। पर समुद्र के पार जाने में सभी ने सन्देह प्रकट किया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥4॥

मूल

जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥4॥

भावार्थ

ऋक्षराज जाम्बवान्‌ कहने लगे- मैं बूढा हो गया। शरीर में पहले वाले बल का लेश भी नहीं रहा। जब खरारि (खर के शत्रु श्री राम) वामन बने थे, तब मैं जवान था और मुझ में बडा बल था॥4॥