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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि लै जाहु सिन्धुतट देउँ तिलाञ्जलि ताहि।
बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि॥27॥

मूल

मोहि लै जाहु सिन्धुतट देउँ तिलाञ्जलि ताहि।
बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि॥27॥

भावार्थ

(उसने कहा-) मुझे समुद्र के किनारे ले चलो, मैं जटायु को तिलाञ्जलि दे दूँ। इस सेवा के बदले मैं तुम्हारी वचन से सहायता करूँगा (अर्थात्‌ सीताजी कहाँ हैं सो बतला दूँगा), जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे॥27॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा॥
हम द्वौ बन्धु प्रथम तरुनाई। गगन गए रबि निकट उडाई॥1॥

मूल

अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा॥
हम द्वौ बन्धु प्रथम तरुनाई। गगन गए रबि निकट उडाई॥1॥

भावार्थ

समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया (श्राद्ध आदि) करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा- हे वीर वानरों! सुनो, हम दोनों भाई उठती जवानी में एक बार आकाश में उडकर सूर्य के निकट चले गए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेज न सहि सक सो फिरि आवा। मैं अभिमानी रबि निअरावा॥
जरे पङ्ख अति तेज अपारा। परेउँ भूमि करि घोर चिकारा॥2॥

मूल

तेज न सहि सक सो फिरि आवा। मैं अभिमानी रबि निअरावा॥
जरे पङ्ख अति तेज अपारा। परेउँ भूमि करि घोर चिकारा॥2॥

भावार्थ

वह (जटायु) तेज नहीं सह सका, इससे लौट आया (किन्तु), मैं अभिमानी था इसलिए सूर्य के पास चला गया। अत्यन्त अपार तेज से मेरे पङ्ख जल गए। मैं बडे जोर से चीख मारकर जमीन पर गिर पडा॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनि एक नाम चन्द्रमा ओही। लागी दया देखि करि मोही॥
बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा। देहजनित अभिमान छुडावा॥3॥

मूल

मुनि एक नाम चन्द्रमा ओही। लागी दया देखि करि मोही॥
बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा। देहजनित अभिमान छुडावा॥3॥

भावार्थ

वहाँ चन्द्रमा नाम के एक मुनि थे। मुझे देखकर उन्हें बडी दया लगी। उन्होन्ने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित (देह सम्बन्धी) अभिमान को छुडा दिया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही॥
तासु खोज पठइहि प्रभु दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता॥4॥

मूल

त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही॥
तासु खोज पठइहि प्रभु दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता॥4॥

भावार्थ

(उन्होन्ने कहा-) त्रेतायुग में साक्षात्‌ परब्रह्म मनुष्य शरीर धारण करेङ्गे। उनकी स्त्री को राक्षसों का राजा हर ले जाएगा। उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेङ्गे। उनसे मिलने पर तू पवित्र हो जाएगा॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जमिहहिं पङ्ख करसि जनि चिन्ता। तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता॥
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू। सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू॥5॥

मूल

जमिहहिं पङ्ख करसि जनि चिन्ता। तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता॥
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू। सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू॥5॥

भावार्थ

और तेरे पङ्ख उग आएँगे, चिन्ता न कर। उन्हें तू सीताजी को दिखा देना। मुनि की वह वाणी आज सत्य हुई। अब मेरे वचन सुनकर तुम प्रभु का कार्य करो॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरि त्रिकूट ऊपर बस लङ्का। तहँ रह रावन सहज असङ्का॥
तहँ असोक उपबन जहँ रहई। सीता बैठि सोच रत अहई॥6॥

मूल

गिरि त्रिकूट ऊपर बस लङ्का। तहँ रह रावन सहज असङ्का॥
तहँ असोक उपबन जहँ रहई। सीता बैठि सोच रत अहई॥6॥

भावार्थ

त्रिकूट पर्वत पर लङ्का बसी हुई है। वहाँ स्वभाव से ही निडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नाम का उपवन (बगीचा) है, जहाँ सीताजी रहती हैं। (इस समय भी) वे सोच में मग्न बैठी हैं॥6॥