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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस।
उर धरि राम चरन जुग जे बन्दत अज ईस॥25॥

मूल

बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस।
उर धरि राम चरन जुग जे बन्दत अज ईस॥25॥

भावार्थ

प्रभु की आज्ञा सिर पर धारण कर और श्री रामजी के युगल चरणों को, जिनकी ब्रह्मा और महेश भी वन्दना करते हैं, हृदय में धारण कर वह (स्वयम्प्रभा) बदरिकाश्रम को चली गई॥25॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥1॥

मूल

इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥1॥

भावार्थ

यहाँ वानरगण मन में विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ न हुआ। सब मिलकर आपस में बात करने लगे कि हे भाई! अब तो सीताजी की खबर लिए बिना लौटकर भी क्या करेङ्गे!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह अङ्गद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी॥
इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई॥2॥

मूल

कह अङ्गद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी॥
इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई॥2॥

भावार्थ

अङ्गद ने नेत्रों में जल भरकर कहा कि दोनों ही प्रकार से हमारी मृत्यु हुई। यहाँ तो सीताजी की सुध नहीं मिली और वहाँ जाने पर वानरराज सुग्रीव मार डालेङ्गे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही॥
पुनि पुनि अङ्गद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं॥3॥

मूल

पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही॥
पुनि पुनि अङ्गद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं॥3॥

भावार्थ

वे तो पिता के वध होने पर ही मुझे मार डालते। श्री रामजी ने ही मेरी रक्षा की, इसमें सुग्रीव का कोई एहसान नहीं है। अङ्गद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण हुआ, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गद बचन सुन कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा॥
छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस बचन कहत सब भए॥4॥

मूल

अङ्गद बचन सुन कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा॥
छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस बचन कहत सब भए॥4॥

भावार्थ

वानर वीर अङ्गद के वचन सुनते हैं, किन्तु कुछ बोल नहीं सकते। उनके नेत्रों से जल बह रहा है। एक क्षण के लिए सब सोच में मग्न हो रहे। फिर सब ऐसा वचन कहने लगे-॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम सीता कै सुधि लीन्हें बिना। नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना॥
अस कहि लवन सिन्धु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई॥5॥

मूल

हम सीता कै सुधि लीन्हें बिना। नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना॥
अस कहि लवन सिन्धु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई॥5॥

भावार्थ

हे सुयोग्य युवराज! हम लोग सीताजी की खोज लिए बिना नहीं लौटेङ्गे। ऐसा कहकर लवणसागर के तट पर जाकर सब वानर कुश बिछाकर बैठ गए॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामवन्त अङ्गद दुख देखी। कहीं कथा उपदेस बिसेषी॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु॥6॥

मूल

जामवन्त अङ्गद दुख देखी। कहीं कथा उपदेस बिसेषी॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु॥6॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ ने अङ्गद का दुःख देखकर विशेष उपदेश की कथाएँ कहीं। (वे बोले-) हे तात! श्री रामजी को मनुष्य न मानो, उन्हें निर्गुण ब्रह्म, अजेय और अजन्मा समझो॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम सब सेवक अति बडभागी। सन्तत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥7॥

मूल

हम सब सेवक अति बडभागी। सन्तत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥7॥

भावार्थ

हम सब सेवक अत्यन्त बडभागी हैं, जो निरन्तर सगुण ब्रह्म (श्री रामजी) में प्रीति रखते हैं॥7॥